जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
कथा-कहानी
अंतरजाल पर हिंदी कहानियां व हिंदी साहित्य निशुल्क पढ़ें। कथा-कहानी के अंतर्गत यहां आप हिंदी कहानियां, कथाएं, लोक-कथाएं व लघु-कथाएं पढ़ पाएंगे। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद,रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मालियो टोल्स्टोय की कहानियां

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कितनी जमीन?  - लियो टोल्स्टोय | Leo Tolstoy

दो बहने थी। बड़ी का कस्बे में एक सौदागर से विवाह हुआ था। छोटी देहात में किसान के घर ब्याह थी।
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पत्रकार - विश्‍वंभरनाथ शर्मा कौशिक

दोपहर का समय था। 'लाउड स्पीकर' नामक अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में काफी चहल-पहल थी। यह एक प्रमुख तथा लोकप्रिय पत्र था।
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इमतियाज गदर की दो लघुकथाएं  - इमतियाज गदर

अनेकता का फल

शिकारी, कबूतरों की एकता की ताकत को भांप चुका था। इस बार वह अपना जाल और शिकार दोनों नहीं खोना चाहता था इसलिए उसने इस बार कई जाल बनाए और उन्हें विभिन्न स्थानों में लगा दिया। साथ ही प्रत्येक जाल में अलग-अलग प्रकार के चारे का प्रयोग किया।
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यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते... - आराधना झा श्रीवास्तव

मेज़ पर जमी हुई धूल को तर्जनी ऊँगली से हटाते हुए और उसे शेष उंगलियों से रगड़कर झाड़ते हुए शर्मा जी झुंझलाए और फिर ऊँचे स्वर में कामिनी को पुकारते हुए कहा, “कामिनी..कामिनी...कहाँ हो...देखो तो मेज़ पर धूल की कितनी मोटी परत है। आज इस कमरे की सफ़ाई करना भूल गई क्या?  काम ठीक से करे न करे, मगर महारानी को पगार तो समय पर ही चाहिए।”
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लोमड़ी और सारस | रूसी लोक-कथा - भारत-दर्शन

एक बार एक लोमड़ी और एक सारस अच्छे मित्र बन गये। एक दिन लोमड़ी ने सारस को खाने पर बुलाने का निश्चय किया।
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सद्भाव - डॉ. सतीश राज पुष्करणा

आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार-कमीज आदि पहनना स्वीकार किया| वह कुँवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती।
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राजनीति की संवेदना - रामदरश मिश्र

एक लंबे अरसे तक प्रयास करने के बाद ही उसे नगर निगम में सफाईकर्मी की जगह मिल पाई। वैसे था तो वह ग्रेजुएट, लेकिन नौकरी की समस्या अपने स्थायीभाव में थी। पत्नी ने राहत की साँस ली, कम-से-कम अब उसे घर-परिवार और नाते- रिश्तेदारों में ताने तो सुनने को नहीं मिलेंगे।
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अतिथि - विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar

एक शाम जब ब्रह्मानंद घर लौट रहे थे तो उनकी भेंट एक ऐसे व्यक्ति से हुई, जो बुरी तरह घबरा रहा था। उसके पास कुछ नहीं था और वह धर्मशाला का पता पूछ रहा था। उन्होंने उसे पास की एक धर्मशाला का पता दिया, लेकिन इस पर उसने पूछा, "क्या मैं वहाँ बिना बिस्तर के रह सकूँगा?"
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जो कभी डाकू था - भानुप्रताप शुक्ल

उद्यान में जाते ही उनके पैर थम से गए। देखा, तो सामने पेड़ की शाखा पर पालने में पड़ा एक बालक किलकारियां मार रहा था। ऋषि आनन्दित हो उठे। उनके उन्मुक्त हास्य में हँसी नहीं, आत्म-विश्वास, चुनौती और अगाध शक्ति का स्फुरण था। क्षण भर सोचा और पहुंच गए उसके माँ-बाप के पास।
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चीनी बाबा - विद्या विंदु सिंह

चीनी बाबा हम छोटे बच्चों की राह हनुमानजी की तरह हाथ-पैर फैलाकर रोक लेते थे। हम लोग जिधर से कन्नी काटकर निकलना चाहें, वे हमसे पहले उधर पहुँच जाते थे। अगर पतली गली होती तो हम फँस जाते थे और बाबा पकड़कर प्यार की एक-एक चपत लगा देते थे। पर अगर अहाते में बाबा मिलते तो हम लोग बाबा को हरा देते थे। और कोई उनके बाएँ से तो कोई दाएँ से और कोई पाँवों के बीच से निकल जाता था। पाँवों के बीच से निकलने वाला बच्चा प्रायः बाबा की मोटी गुदगुदी पिंडलियों में दबकर पकड़ा जाता था, और बच्चों को अगल-बगल से भाग जाने में छूट मिल जाती थी। हम लोग बचकर भागते थे गाते हुए-- 'बाबा! चीनी खाएँगे।' बाबा हमें दौड़ाते और हम उतनी ही तेजी से भागते। चीनी बाबा के साथ का यह खेल आज भी स्मृति में हूबहू ताजा है।
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